सर्दी की नर्म धूप और….

सर्दी की नर्म धूप और….

अपने एयर कंडीशन्ड ऑफिस की कांच की बंद खिड़की से आज झांक कर बाहर देखा..तो अचानक दिल बैठ सा गया। एक पल के लिए अपना सारा बचपन आंखो के सामने घूम गया। खिड़की से देखा आज सर्दी की नर्म धूप खिली हुई है जिसे देख तो पा रही हूं…महसूस नहीं कर सकती।

इस धूप ने सालों पहले के रिश्तो की गर्माहट याद दिला दी। एक छोटा सा शहर झांसी…झांसी में एक छोटी सी कॉलोनी में एक छोटा सा घर था हमारा। क़ॉलोनी में एक छत थी जो किसी एक की नहीं, सबकी थी।

सर्दी की दोपहर, खाना छत पर ही खाया जाता था। हर तरफ चटाई बिछी हुई, मां और पड़ोस की आंटिया। कोई संतरे छील कर हमें खिला रहा है तो कोई अमरूद। हम बच्चे अपनी मस्ती मे डूबे हुए। कभी गुट्टे खेलते थे तो कभी मां के हाथ से छीन कर, स्वेटर की एक आधा सिलाई बुन लेते थे। धूप में बैठे-बैठे ही मां के पल्ले में मूंह छुपा कर एक झपकी भी ले ली जाती थी। कॉलोनी की मांओं का क्या कहना। एक के संतरे खत्म हुए नहीं कि दूसरी मूंगफलियां ले आईं।

कभी-कभी हमसे कहा जाता। बहुत मस्ती कर ली तुम लोगों ने..चलो अब बैठ कर ये मटर छीलो। मुझे ये काम बहुत पसंद था, क्योंकि छीलते छीलते चोरी छिपे मैं सबकी टोकरी में से कच्ची मटर खा जाती थी। उसके बाद बारी आती थी अदरक वाली चाय और गजक की। किसी भी एक घर से गर्मा-गर्म अदरक वाली चाय आती थी जग में भर कर और दुनिया जहां की गप्पो के बीच पी जाती थी। आंटियां एक दूसरे का मज़ाक उडा़ने का कोई भी मौका चूकती नहीं थीं। कॉलोनी की काम वालियों की बुराइयां करने का भी ये अच्छा मौका था, अंकलों की भी और सास ससुर की भी। हर घर की पंचायतो की गवाह थी वो हमारी छत।

कॉलोनी में एक दादी थीं जो थीं तो हर बच्चे की दादी, पर उनकी सबसे ला़ड़ली मैं ही थी। बोर्ड के इम्तिहान से पहले वाली सर्दी मे जब मैं दूसरे बच्चो से अलग बैठ कर धूप में पढ़ती थी, तो वो सबसे छुपा कर मेरे लिए, संतरे, अमरूद, गन्ना,मूंगफलियां लाती थीं और मुझे अपने हाथ से खिलाती थीं।

दादी इस दुनिया से चली गईं और शायद उन्ही के साथ मेरा बचपन भी जो कभी कभार सर्दी की ऐसी दोपहर में ही याद आता है। इसके अलावा वक्त ही कहां हैं कुछ याद करने का।

इस बड़े शहर ने सब कुछ दिया, नौकरी, पैसा,बड़ा घर, गाड़ी, नाम, पहचान….मेरा हर सपना यहां पूरा हुआ पर एक चीज़ जो ये शहर मुझे कभी नहीं दे पाएगा। मेरे बचपन की वो कच्ची और गुनगुनी धूप।

मुझे यकीन है कि सर्दी की ऐसी दोपहर में मुझ जैसे सभी लोग, जो एक छोटे शहर में पले बढ़े और बड़े-बड़े सपने पूरे करने एक बड़े शहर में आए। उन्हें मेरी ही तरह ये गाना ज़रूर याद आता होगा। दिल ढूंढता है फिर वही फुर्सत के रात-दिन………

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