Hawa Hawaai – A MUST watch film…
“चूल्हे के अंगारे जैसे पहले तड़पाते हाथों को..
तब नसीब रोटी होती है
जीवन सार यही है मनवा
तू कर, मत डर…
अंगारों पे चलना है सही…
यही जीवन ज्योति है”
महानगरों में रहने वाले, पिज़्ज़ा बर्गर के मज़े लेने वाले, एयर कंडीशन्ड घरों में रहने वाले बच्चों को कहां पता कि अंगारे चीज़ क्या होती है। उनके लिए तो जैसे life is a bed of roses. 2D, 3D, 7D, सुपरमैन, स्पाइडरमैन, गॉ़डज़िला, और इन जैसी फिल्में देखने वाले, झूलों के बजाय पीएसपी पर खेलने वाले, असल दोस्तों के बजाय फेसबुक फ्रेंन्ड्स के बीच खोए बच्चे जीवन की सच्चाई से किस कदर दूर होते जा रहे हैं, ये सोच कर कई बार घबराहट होती है ।
गांव में रहने वाला एक किसान कैसे अपने बच्चों का पेट पालता है, कैसे इलाके में सूखा उसका खेत ही नहीं बल्कि सब कुछ बर्बाद कर देता है, कैसे गांव में पढ़ने वाले बच्चे अक्सर शहरों को पलायन करने को मजबूर हो जाते हैं और कैसे नन्हे मुलायम हाथों में कभी चाय के कप, कभी गजरे, कई कचड़े के बोरे, कभी ज़री की सुइयां और कभी मैकेनिक के औज़ार थमा दिए जाते हैं और कैसे गांव का अर्जुन हरिशचंद्र वाघमारे शहर में राजू बन जाता है…. यही कहानी है फिल्म हवा हवाई की । लेकिन अगर आप सोच रहे हैं कि बड़ी ही दुखी सी उदास सी फिल्म होगी ये, अगर आप सोच रहे हैं कि कौन जाए गरीबी का रोना रोने वाली एक फिल्म देखने तो आपको बता दूं कि ज़िंदगी की ढेरों कड़वी सच्चाइयां दिखाने के बावजूद किसी भी एंगल से हवा-हवाई एक उदास फिल्म नहीं है।
शायद यही एक अच्छे फिल्मकार की पहचान होती है कि वो हंसाते, रुलाते, गुदगुदाते हमें झकझोर जाए, सोचने पर मजबूर कर जाए या फिर हमारी सोच ही बदल जाए । अमोल गुप्ते ऐसे ही फिल्मकार हैं। तारे ज़मीं पर, स्टैनले का डब्बा जैसी फिल्मों से वो अपनी पहचान पहले ही बना चुके हैं इसलिए उनकी फिल्म देखने के लिए सोचना नहीं पड़ता। लेकिन ज़रूरी ये है कि हम अपने बच्चों को ये फिल्म ज़रूर दिखाएं।
बच्चा चाहे कोई भी हो, किसी भी धर्म का, जाति का, पैसे वाले घर का या एक गरीब, सपने हर बच्चा देखता है। हवा में उड़ने के, कुछ बड़ा करने के । पिता की मौत के बाद अर्जुन हरिशचंद्र वाघमारे का गांव छूटा, पढाई छूटी, बेपरवाह बचपन छूटा लेकिन नहीं छूटा सपने देखना। दिन भर चाय के स्टॉल पर काम करता, लोगों को चाय पिलाता और शाम को वहीं बड़े घरों के बच्चों को स्केटिंग सीखते देखता और रात में सपने में खुद स्केटिंग करते हुए हवा में उड़ता। बाल मन तो आखिर बाल मन है। दुनियादारी वो कहां समझता है। उसे क्या पता कि जितने कर्ज़ के चलते उसके पिता की मौत हो गई होगी उतने रुपए तो शहर के बच्चे एक जोड़ी स्केट्स में खर्च कर देते हैं ।
बहरहाल, बचपन निराशा भी नहीं जानता । पैसे नहीं तो क्या हुआ जुगाड़ तो हैं जिससे अर्जुन और उसके दोस्त स्केट्स तैयार करते हैं, और अर्जुन को स्केटिंग टीचर लकी सर के सामने प्रकट करा देते हैं।
अर्जुन को देखकर लकी सर क्या करते हैं, क्या कहते हैं, ये बता कर मैं फिल्म का मज़ा खराब नहीं करूंगी। लेकिन आपसे ये गुज़ारिश ज़रूर करूंगी कि अपने बच्चों को हवा-हवाई ज़रूर दिखाएं। एक संवेदनशील फिल्म, जो हमारे देश में बच्चों से जुड़ी कई परेशानियों खासकर बाल मज़दूरी को बहुत मानवीयता के साथ दर्शाती है, कभी हमारी आंखों में आंसू और कभी होठों पर मुस्कान लाती है और सबसे बड़ी बात—-ये फिल्म सपने बुनना और किसी के सपनों को पूरा करना सिखाती है ।.. ज़रूर देखिएगा । आपको अफसोस नहीं होगा।
“घर से मसजिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें, किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए “
Leave a Reply