१४ साल की लड़की की सोच
मुझे परिवार के साथ साफ सुथरी फिल्में देखना बहुत पसंद है। इस मदर्स डे पर सोचा कि क्यों न सब के साथ गिप्पी देखी जाए। कुछ दोस्तों से सुना था और ट्विटर, फेसबुक पर पढ़ा था कि फिल्म अच्छी है। तो सोचा मदर्स डे पर मां और बिटिया, दोनों के लिए इससे बेहतर तोहफा क्या होगा। और फिल्म देखने के बाद मुझे अपने फैसले पर वाकई खुशी हुई।
फिल्म में एक १४ साल की लड़की की सोच, समझ, कशमकश को बेहद खूबसूरती के साथ दिखाया है। कुछ खास बातें जो मुझे बहुत अच्छी लगीं, उनमें से पहली तो ये कि आखिरकार १४-१५ साल के बच्चों पर कोई अच्छी फिल्म बनी। वर्ना इस उम्र की कहानियों के बारे में कितने फिल्मकार सोचते हैं। या तो बाल फिल्में बनती हैं या युवाओं के रोमांस पर। जबकि शायद हम सबकी ज़िंदगी में जो सबसे अजीबो गरीब उम्र होती है वो १३-१७ तक की होती है। हम बहुत से सवालों के जवाब ढूंढते हैं। सारी दुनिया हमें दुश्मन नज़र आती है । दोस्त सबसे अहम होते हैं, घरवालों से भी ज़्यादा । अपने शरीर में हो रहे बदलाव परेशान करते हैं। किसी की भी कही कोई भी बात बुरी लग जाती है । दूसरे सेक्स के प्रति आकर्षण नया नया शुरू होता है। फिल्मी दुनिया के सितारे और क्रिकेट के खिलाड़ी सबसे बड़े भगवान होते हैं, उनके बड़े बड़े पोस्टर कमरे की दीवारों पर भगवान की तस्वीरों की जगह ले लेते हैं। लेकिन उम्र के इतने अहम पड़ाव पर फिल्में नहीं दिखती। तो सबसे पहले तो गिप्पी बनाने वालों को इस विषय को चुनने के लिए शाबाशी।
दूसरी बात जो मुझे बहुत ज़्यादा पसंद आई वो है फिल्म का यथार्थ के करीब होना। करण जौहर की फिल्मों से मुझे यही शिकायत रहती है। उनकी फिल्मों के हॉस्टल किसी फाइव स्टार से कम नहीं दिखते। दीवारें लाल पीले चटख रंगों से सराबोर होती हैं। कॉलेज तो जैसे शॉपिंग मॉल की तरह दिखते हैं और सारे स्टूडेंट्स मॉडल्स की तरह। करण जौहर की फिल्मों वाले स्कूल कॉलेज कहां और किस देश में होते हैं ये तो पता नहीं लेकिन हिंदुस्तान में तो मैंने ऐसा कोई कॉलेज नहीं देखा। गिप्पी का स्कूल, टीचर्स, दुकानें,घर, सब वास्तविक था। कोई बेवजह की सजावट नहीं। बच्चे भी सब ऐसे जैसे आम बच्चे होते हैं न कि मेकअप किए हुए और बाल संवारे हुए।
एक और बात वो ये कि हम लोग अपने टीनएजर बच्चों से खुलकर उनके शरीर में हो रहे बदलावों , उनके कनफ्यूशन्स, उनके आकर्षणों के बारे में बात नहीं करते हैं। फिल्म के डॉयलॉग में अगर “पीरियड” शब्द आ जाए तो हम खुद को असहज महसूस करने लगते हैं। कमाल है न ? हम डी के बोस और फेवीकॉल जैसे फूहड़ गीत तो खुलकर गा सकते हैं लेकिन कुछ वास्तविक और सीधे सरल शब्दों से बचने की कोशिश करते हैं। इस फिल्म में ऐसे ही कुछ शब्दों को खुल कर बोला गया जो मुझे पसंद आया। हर घर में बच्चे बड़े होते हैं और उन शब्दों का उपयोग स्वाभाविक है।
और अब बात कहानी की। गिप्पी १४ साल की एक लड़की है। दिखने में थोड़ी मोटी है। झेंपी हुई सी रहती है । पढ़ाई में भी अच्छी नहीं। उसको हर वक्त ये बात सताती है कि वो पॉपुलर क्यों नहीं, क्यों लड़के उसकी तरफ आकर्षित नहीं होते, क्यों उसका मज़ाक बनाया जाता है, क्यों कोई उससे दोस्ती नहीं करना चाहता। दरअसल गिप्पी एक बेहद आम लड़की है जो हर स्कूल की हर क्लास में हमको मिल जाएगी। लेकिन इस फिल्म ने गिप्पी जैसी हर लड़की को एक बहुत प्यारा संदेश दिया गया है और वो ये कि आम बने रहने में ही उसकी खासियत छुपी हुई है। कोई ज़रूरत नहीं है उसको खुद को बदलने की कोशिश करने की, सजने संवरने की, पैसे वाले अपर क्लास बच्चों की नकल करने की। कोई फर्क नहीं पड़ता अगर वो बहुत खूबसूरत न दिखती हो, उसकी मासूमियत में ही उसकी खूबसूरती छुपी है। उसे अच्छा दिखने के लिए अपनी प्यारी आइसक्रीम छोड़ने की कोई ज़रूरत नहीं है, न ही महंगे महंगे कपड़े अपनाने की। दोस्तों को लुभाने के लिए किसी ट्रिक की भी ज़रूरत नहीं, जो उसका दोस्त है वो हमेशा उसका दोस्त रहेगा।
दिव्या दत्ता एक एेक्ट्रस के तौर पर मुझे हमेशा पसंद आती हैं। गिप्पी की मां के रोल मेंं भी वो बहुत अच्छी लगीं। ऐसी हर फिल्म देखने के बाद मैं यही दुआ करती हूं कि ऐसी और ढेर सारी फिल्में बनें, लोग देखें और समाज और इंसान के तौर पर हम बहुत कुछ सीख सकें। आपको मौका मिले तो गिप्पी ज़रूर देखिएगा। वैसे हम बचपन में जिस पत्थर के टुकड़े से खेलते थे उसको गिप्पी कहते थे।
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