टीवी कार्यक्रमों की बात
टीवी कार्यक्रमों की बात छिड़े तो अपने बचपन के दिनों के कई प्रोग्राम याद आते हैं । रामायण महाभारत तो खैर इतने लोकप्रिय थे कि उन्हें आजीवन भूलना ही नामुमकिन है। इन दोनों धारावाहिकों के प्रति लोगों का क्रेज़ मुझे आज भी याद है।
संडे की सुबह तो और कोई काम होता ही नहीं था। बाकि सारे प्लान इनके हिसाब से बनाए जाते थे। मसलन लोगों को ये कहते सुनना आम था- चलिए फिर संडे को रामायण के बाद मिलते हैं आपसे । बच्चों को भी पढ़ाई के बीच में रामायण महाभारत देखने की परमिशन मिल ही जाती थी।
इन दोनों के अलावा “हम लोग” और “बुनियाद” भी याद हैं। इनके किरदार घर घर के दिल में बसे थे । सुबह की सैर या शाम की पार्टियों की गपशप इन्हीं धारावाहिकों की कहानी के इर्द गिर्द घूमती थी। बसेसर राम, छुटकी बड़की, नन्हे हमारे लिए किसी फिल्मी सितारे से कम नहीं थे लेकिन हम लोग की कहानी हमें अपने आम परिवारों की कहानी जैसी लगती थी जिससे हम एक जुड़ाव महसूस कर पाते थे।
रविवार को एक क्विज़ शो आता था, “संडे क्विज़ टाइम” । कौन बनेगा करोड़पति के जनक सिद्धार्थ बसु उन दिनों खुद क्विज़ मास्टर की भूमिका में होते थे। दरअसल टीवी पर क्विज़िंग का आगाज़ करने का श्रेय सिद्धार्थ बसु को ही जाता है। उन दिनों भी हम “क्विज़ टाइम” का उतनी ही बेसब्री से इंतज़ार करते थे जैसे अब कौन बनेगा करोड़पति का करते हैं। झांसी में पल रहे हम मिडिल क्लास बच्चों के स्तर से वो प्रोग्राम बहुत ऊपर था और शायद इसीलिए हमें बहुत पसंद भी था।
एक सीरियल जो मुझे बहुत पसंद था, वो था “उड़ान” । एक लड़की की ज़िंदगी की उड़ान। कहानी थी एक साधारण परिवार की लड़की की जो एक दिन आइपीएस अधिकारी बनती है। उस सीरियल ने मेरे दिलो दिमाग पर जितना असर छोड़ा उतना किसी और ने नहीं। मैं भी उस लड़की की तरह बहुत कुछ करने के सपने देखती थी। ज़िंदगी की ऊंची उड़ान भरने के सपने देखती थी। अमिताभ बच्चन से एक बार मिल पाने का सपना देखती थी। स्विटज़रलैंड घूमने का सपना देखती थी। और उड़ान जैसे सीरियल मेरे उन सपनों को और बल देते थे।
न्यूज़ भी हम लोग ज़रूर देखा करते थे। समाचार बड़े सीधे सरल तरीके से पढ़ दिए जाते थे। कोई ब्रेकिंग न्यूज़ का शोर नहीं था न ही चीखते हुए एंकर्स का ज्ञान सुनना पड़ता था। खबर जैसी होती वैसी बता दी जाती थी।
अब जब कभी घर पर थोड़ी बोरियत होती है तो टीवी का रिमोट उठा कर चैनल बदलने की एक बेकार सी कोशिश करती हूं। सारे न्यूज़ चैनल एक शख्सियत का इंटरव्यू ये कह कर चला रहे होते हैं कि ये उनका एक्सक्लूज़िव इंटरव्यू है। किसी सेलेब्रिटी की शादी हो तो शादी में पक रहे व्यंजन भी ब्रेकिंग न्यूज़ की शक्ल ले लेते हैं। चूंकि इसी प्रोफेशन की हूं तो ये भी पता है कि रिपोर्टर पर किस कदर दबाव होता है कोई बढ़िया खबर लाने का ताकि टीआरपी बढ़ जाए।
इंटरटेनमेंट चैनलों के बटन दबाएं तो हंसी कम औऱ रोना ज़्यादा आता है। सजी संवरी महिलाएं, ऊपर से नीचे तक गहनों से लदी, एकदम परफेक्ट मेकअप किए बहुत व्यस्त नज़र आती हैं। हों भी क्यों न, सास, नन्द वगैरह के खिलाफ साज़िशे रचने का मेहनत भरा काम जो करना पड़ता है। इन सीरियल्स के आदमी भी बड़े मज़ेदार होते हैं। दिन भर घर पर ही दिखते हैं लेकिन घर हमेशा आलीशान महलों जैसे। हर सीरियल में नफरत, जलन, बदला, साज़िश जैसे इमोशन ही दिखते हैं। सजी धजी लड़कियां सिर्फ शादी के ही सपने संजोती रहती हैं। किसी भी सीरियल में पढ़ाई की बातें, कुछ बड़ा करने या बनने के सपनों की बातें, समाज की भलाई की बातें, देश की स्थिति की चर्चा नहीं दिखती। इन सीरियल्स को देख कर लगता है जैसे मैं वक्त के रिवर्स गियर में चल रही हूं। वर्ना कहां आज लड़कियां घरों में लहंगे पहन कर घूमती हैं, ये समझ नहीं आता। कुछ सीरियल हंसी के नाम पर ऐसी फूहड़ता परोसते हैं कि मुझे तो गुस्सा आने लगता है। और बात रिएलिटी शोज़ की तो क्या कहूं। टीआरपी के लिए ऐसे ऐसे ड्रामे हो रहे हैं जिन्हें देख कर हैरानी होती है कि लोग प्रोग्राम बनाने वाले ऐसा सोच भी कैसे लेते हैं।
मेरे घर में तो अब टीवी देखना न के बराबर हो गया है। क्या करें, मजबूरी है। जिस तरह के कार्यक्रम आ रहे हैं, अपनी बेटी को मैं वो नहीं दिखा सकती। एक मां होने के नाते, इतना छल कपट, फूहड़ता, इतना शोर मैं अपनी बेटी के सामने नहीं परोस सकती। मुझे इंतज़ार है उस दिन का जब टीवी वापस एक सरलता के दौर में पहुंचे। लड़कियों, महिलाओं की तरक्की के कार्यक्रम बनें न कि उन्हें एक शो पीस बनाने वाले, युवाओं को प्रेरित करने वाले कार्यक्रम बनें न कि गुमराह करने वाले, स्वस्थ हास्य वाले कार्यक्रम बनें न कि वाहियात जोक्स वाले….क्या लगता है आपको ? क्या ऐसा दौर आएगा?
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