इत्तेफाक
इस साल इत्तेफाक से मैं बहुत सफर कर रही हूं। और उनमें से ज़्यादातर सफर ट्रेन से हो रहे हैं। देश के किसी भी शहर या कस्बे में चले जाइए , रेलवे स्टेशन, प्लेटफॉर्म, टॉयलेट्स की हालत देख कर अफसोस ही होता है।
देश की राजधानी दिल्ली ही क्यों न हो, वहां भी, न किसी को साफ सफाई की फिक्र है न व्यवस्थाओं की बदहाली की। और छोटे शहरों की तो बात ही छोड़ दीजिए। जहां नज़र दौड़ाएंगे, कचड़े के ढेर, पान की पीक के निशान, प्लास्टिक की थैलियां, चिप्स, बिस्कुट के रैपर, केलों, संतरों के छिलके पाएंगे। और बदबू का तो कहना ही क्या, सांस लेना भी मुश्किल।
ये सब पढ़ कर आपको लगेगा कि मैं भी सरकार को कोसने वाली हूं। या प्रशासन को ज़िम्मेदार ठहराने वाली हूं । नहीं। किसी भी और को ज़िंम्मेदार ठहराना ज़िंदगी में सबसे आसान काम है । हर कमी, हर अव्यवस्था का ठीकरा फोड़ दीजिए सरकार और प्रशासन के सर और झाड़ लीजिए अपने हाथ। आंख,कान नाक बंद कर के जाइए ट्रेन के सफर पर, सफाई न होने पर बड़बड़ाइए और फिर घर पहुंच कर सब भूल जाइए और अपने घर को साफ कर लीजिए । कितना आसान है न ? इससे आसान तो कुछ हो ही नहीं सकता।
चलिए अब पीछे मुड़ कर आपके खुद के सफर को थोड़ा देखते हैं। याद है आप ने पान खाया था और जब पीक थूकने का वक्त आया तो आपने चलते हुए यूं ही प्लेटफॉर्म के उस खंभे पर थूक दिया था । बच्चों को भूख लगी तो आपने चिप्स का पैकेट तो खरीद दिया पर उनको ये बताना तो भूल ही गए कि पैकेट फेंकना कहां है- कूड़ेदान में या प्लेटफॉर्म पर। बच्चे को ट़ॉयलेट जाना था तो उसे भी वहीं प्लेटफॉर्म पर बिठा दिया ।सिगरेट पी और पीने के बाद भी जहां खड़े थे वहीं फेंकी, पैर से मसली और बढ़ गए ट्रेन की तरफ । ट्रेन के सफर में मस्ती तो खूब की, मूंगफलियां खाईं, संतरे, केले खाए और सबके छिलके वहीं बगल में फेंकते चले गए। चलती ट्रेन में कई बार खिड़की से ही पान मसाला भी थूक ही दिया होगा बिना ये सोचे कि आप जो थूक रहे हैं उसके छींटे पास की खिड़की पर बैठे इंसान को लग रहे होंगे।
कभी सोचा कि हम सब लोग ये सारे काम क्यों करते हैं ? कभी सोचा कि हम अपने घर में तो चलते फिरते पान नहीं थूकते, छिलके नहीं फेंकते, बदबू नहीं फैलाते ? अपने घरों को तो हम रोज़ साफ करते हैं खूबसूरत बना कर रखना चाहते हैं, तो फिर घर से बाहर निकल कर हमें क्या हो जाता है ? कभी सोचा ?
मैं बताती हूं । सच ये है कि हम अपना घर सिर्फ उसको मानते हैं जिसकी चारदीवारी में हम रहते हैं। सिर्फ वही हमारा आशियाना है हमारी नज़र में। जिस गली में , जिस मोहल्ले में, जिस कस्बे या शहर में हम रहते हैं उसे हम अपना घर नहीं मानते। देश की तो खैर बात ही छोड़ दीजिए। उससे तो जैसे हमारा वास्ता सिर्फ इतना ही है कि हम हर वक्त उसको कोसते रहें। उसके हालात पर अफसोस जताते रहें और कहते रहें कि इस देश का कुछ नहीं हो सकता।
वाकई इस देश का कुछ नहीं हो सकता जिसके निवासी उसको अपना घर ही न मानें। जहां लोग सड़क,पार्क, रेलवे स्टेशन, फिल्म थियेटर,बस, ट्रेन को अपनी संपत्ति न समझें। जहां लोगों का वास्ता अपने देश से सिर्फ दिमाग का हो दिल का नहीं। जहां के लोगों की सोच सिर्फ यही हो कि मुझे क्या…तो वाकई इस देश का कुछ नहीं हो सकता ।
और जब इसी देश के लोग विदेश जाते हैं तो न सड़क पर थूकते हैं न चिप्स का पैकेट फेंकते हैं। इसका मतलब है कि हम ये तो जानते हैं कि अपने देश में हम जो भी करते हैं वो गलत है लेकिन चूंकि यहां हमें पकड़े जाने का डर नहीं इसलिए हम जो चाहें करते रहते हैं। सोचिए, कि क्या अपना घर साफ रखने के लिए भी सरकार हमसे कहती है? क्या एक पुलिसवाला रोज़ आकर हमसे कहता है कि घर साफ रखो ? क्या प्रशासनिक अधिकारी हमारे घर की सफाई का निरीक्षण करने आते हैं ? क्या अपने घर की व्यवस्था की ज़िम्मेदारी हम सरकार के कंधों पर डाल कर पल्ला झाड़ते हैं ?
तो फिर क्या ये देश हमारा घर नहीं है? है । बल्कि उससे कहीं ज़्यादा है। आइए फैसला करें कि अगली बार घर से बाहर निकलेंगे तो भी बाहर की हर जगह को अपने घर की तरह समझेंगे, उसी नज़र से देखेंगे। बाहर सफाई न कर पाएं तो कम से कम और गंदगी न फैलाएं। अगली बार सड़क पर कूड़ा फेंकने, पान थूकने से पहले एक पल को रुकिएगा, खुद से कहिएगा कि ये देश भी मेरा घर है और इसकी सफाई भी मेरी ही ज़िम्मेदारी है, किसी और की नहीं। एक महिने ऐसा कीजिए और फिर देखिए आप कैसा महसूस करते हैं। यकीन मानिए, बहुत तसल्ली महसूस होगी, देश से लगाव महसूस होगा और फिर किसी और को गंदगी फैलाते देख उसको रोकने का मन होगा जैसे मुझे होता है । और जब ऐसा मन करने लगे तो मन की सुनिएगा ज़रूर और अपने आसपास के लोगों को भी देश से सही मायनों में प्यार करने का संदेश ज़रूर दीजिएगा।
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