ज़िंदगी लाइव अवॉर्ड्स
इस बार पिछले हफ्ते की ही बात को आगे बढ़ा रही हूं। कुछ ऐसी महिलाओं की बात जो अपनी ज़िंदगी जीने के ढंग से दूसरी महिलाओं के लिए एक मिसाल कायम करती हैं । ज़रूरी नहीं कि ये महिलाएं कोई बहुत बड़ा काम कर रही हों लेकिन उन्होंने जो भी किया उससे अपनी हिम्मत का परिचय दिया। फैसला चाहे छोटा रहा या बड़ा, उसने दुनिया को चौंका दिया और इन महिलाओं के प्रति सम्मान को कई गुना बढ़ा दिया। आज मैं आपका परिचय कराउंगी दो मांओं से।
इन दोनों मांओं को इस साल के ज़िंदगी लाइव अवॉर्ड्स के लिए चुना गया। दोनों ने अपने बेटों के लिए जो किया वो आसान नहीं होता। लेकिन शायद इसीलिए तो मां के रिश्ते को हर रिश्ते के ऊपर रखा गया है।
हेमा अज़ीज़ के बेटे कैप्टन हनीफुद्दीन करगिल के युद्ध में शहीद हो गए थे। और उनका शव करीब 24 दिन बाद परिवार के पास पहुंचा था। लेकिन इन 24 दिनों में एक बार भी हेमा जी ने ये ज़िद नहीं की कि उनके बेटे का शव जल्द से जल्द उन्हें सौंपा जाए। जानते हैं क्यों ? क्योंकि उन्हें लगा कि अगर वो अपने बेटे के शव के लिए ज़िद करेंगी जो चला गया है तो जो बच्चे ज़िंदा हैं उनके मनोबल पर क्या असर पड़ेगा। सोचिए हम में से कितने लोग इतना बड़ा दिल रख सकते हैं कि दूसरों का ख्याल कर के खुद की ज़रुरत को नज़रअंदाज़ कर दें । और हेमा जी ने तो अपने बेटे को खोया था। कितनी हिम्मत ,कितनी देशभक्ति, कितनी संवेदनशीलता..हम शायद इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। वैसे हेमा जी की पूरी ज़िंदगी ही संघर्षों भरी रही। तीनों बेटे छोटे थे जब उनके शौहर गुज़र गए। हेमा जी ने नौकरी की, अपने बेटों को पाला और उन्हें अच्छे संस्कार दिए। हनीफुद्दीन ने उन्हीं संस्कारों का परिचय युद्ध के मैदान पर भी दिया। वो हमेशा कहता था कि या तो जीत कर आना है या जान देकर जाना है और यही उसने कर के भी दिखाया। हनीफ की शहादत के बदले सरकार ने हेमा जी को पेट्रोल पंप देने की पेशकश की लेकिन उसके लिए भी हेमा जी ने और उनके दोनों बेटों ने मना कर दिया। आज की भौतिकतावादी दुनिया में एक पेट्रोल पंप के लिए मना कर देना बहुत लोगों को पागलपन लगेगा लेकिन हेमा जी बड़ी सरलता से कह देती हैं कि उन्हें उस पंप की ज़रुरत नहीं थी इसलिए उन्होंने उसे किसी ऐसे परिवार के लिए छोड़ दिया जिसके वो काम आए। हेमा जी अब हनीफुद्दीन की याद में कुल्लू ज़िले में एक स्कूल चलाती हैं और उसी के सहारे अपने लाड़ले हनीफ की यादों को ज़िंदा रखे हुए हैं । इस सरलता और सह्रदयता के आगे इंसान अपने आप नत मस्तक हो जाता है।
दूसरी मां हैं अनीता शर्मा। अनीता शर्मा के बेटे संभव समलैंगिक हैं। कितना मुश्किल हुआ होगा अनीता जी के लिए इस सच को स्वीकार कर पाना। जहां आज भी हमारे समाज में समलैंगिकों को हेय दृष्टि से देखा जाता है, उन्हें परिवार से बेदखल कर दिया जाता है, समाज से अलग थलग कर दिया जाता है, वहां अनीता जी ने संभव का साथ देने का फैसला किया। दुनिया के सामने ये खुल कर स्वीकारने का फैसला किया कि उनका बेटा समलैंगिक है और वो उसके साथ हैं। आसान नहीं होता, बिलकुल नहीं लेकिन अनीता जी ने एक बेहद खूबसूरत बात कही। वो बोलीं कि मैं सिर्फ अपने बेटे की खुशी चाहती हूं। क्या उसको सिर्फ इसलिए खुश रहने का हक नहीं क्योंकि वो दूसरों से अलग है? । आज संभव की सबसे बड़ी ताकत उसकी मां अनीता हैं।
“मां” शब्द में जो ताकत है, मेरी नज़र में वो ताकत किसी और शब्द में नहीं। और जो हिम्मत इस रिश्ते में है वो भी किसी और में नहीं। सारी दुनिया भले साथ छोड़ दे एक मां अगर बच्चे के साथ हो तो वो हर जंग जीत सकता है। हेमा जी और अनीता जी जैसी मांएं ये साबित करती हैं। हेमा जी ने हनीफ की शहादत को मिले सम्मान को कई गुना बढ़ा दिया और अनीता जी ने अपने बेटे के अस्तित्व को सम्मान देने और दिलाने का फैसला किया। दोनों ने ही ये साबित किया कि उनके लिए अपने बच्चे से ज़्यादा अहम औऱ कुछ भी नहीं। न पैसा, न झूठी इज़्ज़त। इन दोनों और इन जैसी हर मां को मेरा सलाम जो बच्चे को सिर्फ जन्म नहीं देतीं, ज़िंदगी भी देती हैं।
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